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मैं बहुत देर तक यूँ ही चलती रही।

रात की खामोशी का शोर सुना,

दिन की भीड़ में मैं तन्हा हुई,

मैं बहुत देर तक यूँ ही चलती रही।

*

जिन में ख़ुशबू थी वो फूल मुर्झा गए,

भँवरों के डँसने से

हाँ !घबरा गए,

नकली फूलों की रौनक तो कम ना हुई,

सूखे पत्तों को मैं चुनती रही,

मैं बहुत देर तक यूँ ही चलती रही।

*

गहरे जज़्बात तो वो पढ़ ना सके,

मेरे लफ़्ज़ों के माने समझ ना सके

बस अनर्गल सी बातें ही होती रही,

अपने हाथों से दिल अपना मलती रही,

मैं बहुत देर तक यूँ ही चलती रही।

*

सभी के अश्कों के मोती बनते नहीं,

सभी के हँसने से गुल खिलते नहीं,

ये समझने में कितनी उमर लग गई,

टूटा भ्रम तो सारी गिरह खुल गई,

मैं नए मोड़ पर आगे बढ़ती गई,

मैं बहुत देर तक यूँ ही चलती रही। ~अरशफा


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4 thoughts on ““चलती रही” : अरशफा

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