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ज़िंदगी का एक और साल ख़त्म होने को है और मैं यहाँ बैठी साल के इस आख़िरी दिन को जाता देख ये मुआइना कर रही हूँ कि इस साल ने मुझसे क्या छीना, मेरी झोली में क्या सौग़ात डाली, मुझे कहाँ तक लेकर गया, किसे नज़दीक लाया, किसे दूर किया, क्या-क्या करवाया और क्या कुछ करने से रोका?

गहराई से देखें तो साल का बदलना सिर्फ़ तारीख़ का बदलना नहीं होता। एक पूरा साल काफ़ी लंबा अरसा होता, ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा जो हमारे आने वाले दिनों की रूपरेखा तैयार करता है। इसलिये अपनी दिनचर्या को जाँचना ज़रूरी हो जाता है ताकि हम देख सकें कि हम कितने उन्नत और सक्षम हुए हैं, कहाँ गलती की और कहाँ सुधार कर सकते हैं? और इस काम के लिये ३१ दिसंबर का दिन सबसे सही है।

मैं अपनी बात करूँ तो २०२४ ने मुझे पूरी तरह से बदल दिया; मेरी सारी मान्यताएं, विश्वास, भ्रम, भ्रांतियां, दृष्टिकोण, रिश्ते आदि सभी को तोड़-मोड़ कर जीवन का इक नया फ़लसफ़ा दिया। सच मानो ये सब बताने या सुनने में जितना सरल लग रहा है ना उतना सरल बिलकुल भी नहीं है। इस सब में तकलीफ़ हुई, थोड़ी नहीं बहोत ज़्यादा हुई, बल्कि अभी भी हो रही है लेकिन इन काँटों के साथ मुझे जो फूल मिले, इस कीचड़ में जो कमल खिला, तपती गर्मी में जो शीतल पवन चली, कर्कश वेदना (असीम पीड़ा) में जो अनुराग (प्रेम/भक्ति) के स्वर गूँजे उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

मेरे रक़ीब (विरोधी)भी सोचते होंगे कि किस ढीठ से पाला पड़ा है, कितने भी वार कर लो इस का दम है कि निकालता ही नहीं, हौंसला है कि टूटता ही नहीं, चेहरे की रौनक फीकी नहीं पड़ती और आरज़ू छूटती नहीं। तो इस पर मेरा जवाब बस एक ही है— मेरी मुस्कान। ये सबूत है कि मैंने कभी किसी से नफ़रत नहीं की, पलट कर वार नहीं किया। किया तो सिर्फ़ भरोसा, प्रेम और अपना काम क्योंकि ये सब जो हमारे आस-पास है ना ये सब अस्थायी है, चाहे कितना भी सँभलो या संघर्ष करो एक दिन ये सब मिट जाएगा। तो जो चीज़ पक्की है ही नहीं, जिस का वजूद नष्ट होना तय है उसके लिए अपनी आत्मा को, अपने कर्मों को, जो कि हमारा स्थायी सत्य हैं उन्हें कलंकित क्यों करें ? सामाजिक (social) दृष्टि से देखें तो बहुत कुछ खो गया है जिस का दुख है,वरन आत्मिक (spiritual) नज़रिया कहता है कि खोने को कुछ अपना था ही नहीं, सिर्फ़ पाया ही है।

इसलिए, कुदरत ने मुझे जो दिया वो मैंने स्वीकार किया; जीवन की हर परिस्थिति में समर्पण किया, जो हलाहल (ज़हर)मुझे परोसा गया उसे ग्रहण किया, बेवफ़ाई के दंश से दिल को चकनाचूर होने दिया, जब काँटों से ज़मीन सजाई गई तो पाँव छलनी होने दिए, ये सब मैंने होने दिया पूर्ण समर्पण के साथ और अब जब मेरे हिस्से का प्यार, स्नेह, सम्मान, तारीफ़, आशीर्वाद और आनन्द मुझे नसीब होगा तो मैं उसे भी स्वीकार करूँगी क्योंकि वो मेरी हक हलाल की कमाई है जो मुझे मिले गी।

तो इस साल ने मुझे मेरे क्षेत्र से बाहर निकालने ही क़वायद (कार्यविधि / drill) की जिस मे वो कामयाब हुआ। ये मुझे वहाँ ले कर गया जहाँ जाने की मैंने कभी कल्पना नहीं की थी, मुझ से वो करवाया जो मैंने कभी सीखा ही नहीं, वो दिखाया जिसे देखने का हौसला नहीं था, वो समझाया जिसे शब्दों में बया करना नामुमकिन है। मुझे खुद से मिलाया और सिखाया शालीनता के साथ आत्मसमर्पण करना।

हम सभी को बचपन से ही जूझने और संघर्ष करने की शिक्षा दी जाती है (कुछ लोग तो अपने बच्चों को लड़ना और छीनना भी सिखाते हैं !!),परन्तु कभी-कभी हमें कुछ ना करने की कोशिश करनी होती है ख़ासकर तब जब हमने सब कुछ कर के देख लिया हो और कोई हल ना निकल रहा हो। ऐसी सूरत में दो ही काम हो सकते हैं—एक तो ये कि जो हो रहा है उसे स्वीकार करो, या त्याग दो—ख़ुद छोड़ दो या चले जाने दो। कोई ड्रामा नहीं, जद्दोजेहद, खिलाफत या ज़बरदस्ती नहीं।जो भी करो मन मार कर नहीं, पूरी श्रद्धा और प्रेम के साथ, निर्लेप भाव से।सच मानो इस में बड़ा आनंद है। कभी कर के देखना, सारी तृष्णा मिट जाएगी, मन शांत और स्थिर हो जाएगा। अपने हक के लिए लड़ना गलत नहीं है लेकिन हमें ये भी देखना चाहिए कि ये लड़ाई लड़नी क्या वाक़ई में ज़रूरी भी है। क्या ये दुनिया इतनी अहम है कि इस के लिए खुद को ज़ाया किया जाए?

आप भी ज़रा बीते हुए १२ महीनों पर गौर करें, देखें पिछले साल आज के दिन कहाँ थे और आज कहाँ हैं? समय ने क्या सीख दी? क्या आप ने उस सीख को आत्मसात् किया? याद रखें, बीता हुआ वक़्त चाहे जैसा भी रहा हो, अच्छा, बुरा या बहुत बुरा, फ़िज़ूल कभी नहीं होता, कुछ ना कुछ तजुर्बा ज़रूर देता है और यही तजुर्बा हमें समझदार बनाता है। तो आऐं समझदारी के साथ नववर्ष का स्वागत करें। नया साल नई सीख, नई आशा, नई उम्मीदें लेकर आए और जीवन को प्रेम से सराबोर कर दे। जो पीछे छूट गए हैं उन्हें आगे आने का मौक़ा दे और जो आगे निकल गए हैं उन्हें मार्गदर्शन का जज़्बा। नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ, मैं अरशफा ! 🙏🏻

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One thought on “उफ़्फ़,ये बारह महीने ! ~ अरशफा

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