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सब कुछ कहने के बाद भी,
कहने को कुछ रह ही जाता है।
कितना कुछ सुनती हूँ,
पर जो सुनना चाहती हूँ
वो कह नहीं पाता है।

शायद ये भाग में नहीं मेरे,
या शायद मैं कुछ ज़्यादा माँगती हूँ
जो मेरा था, वो मेरा नहीं,
इक आह भरती हूँ और
दिल फिर से टूट जाता है।
सब कुछ कहने के बाद भी,
कहने को कुछ रह ही जाता है।

सदियाँ बीती मुंतज़िर सी,
अभी और सदियाँ बीतेंगी मुंतज़िर की।
इंतख़ाब मेरा ना हुआ,
इंतज़ार मुझको है मिला,
जिस हाथ को थामा नहीं
वो भी छूट जाता है।
सब कुछ कहने के बाद भी,
कहने को कुछ रह ही जाता है।
~अरशफा

मुंतज़िर = इंतज़ार करने वाला

इंतख़ाब = चयन

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4 thoughts on “कुछ रह जाता है ~अरशफा

  1. Ideas expressed in poem appear very good BUT it is better that the things/assignment is still incomplete. But if at all every passion goes in our way and completed, then there may be blank or darkness ahead. Very purpose and mission of life should be To Explore More and More. KHUDDI KO
    KAR BULAND ITNA KI KHUDAA BANDE SE PUCHHE KI BATAA TERI RAZA KYA HAI. In the end I conclude with saying that * JO MAZA HAI INTZAAR MEI, VEH MAZA NA DIDAAR MEI *

    However sentiments expressed by your good self are Excellent. Keep Doing/Searching and Scorching NEW HEIGHTS. Regards. 🙏

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